धर्म
ग्रंथों के अनुसार मार्गशीर्ष मास
के शुक्ल पक्ष
की एकादशी तिथि
को भगवान श्रीकृष्ण ने
कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को गीता
का उपदेश दिया
था। इसलिए प्रतिवर्ष इस
तिथि को गीता
जयंती का पर्व
मनाया जाता है।
गीता एकमात्र ऐसा
ग्रंथ है, जिसकी
जयंती मनाई जाती
है।
गीता
दुनिया के उन
चंद ग्रंथों में
शुमार है, जो
आज भी सबसे
ज्यादा पढ़े जा
रहे हैं और
जीवन के हर
पहलू को गीता
से जोड़कर व्याख्या की
जा रही है।
इसके 18 अध्यायों के
करीब 700 श्लोकों में
हर उस समस्या
का समाधान है
जो कभी ना
कभी हर इंसान
के सामने आती
हैं। इस लेख में
अगले पृष्ठों पर
हम आपको गीता
के 9 चुनिंदा प्रबंधन सूत्रों से रूबरू करवा
रहे हैं जो
आपके जीवन में
बहुत काम आयेगे
1
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा
फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते
संगोस्त्वकर्मणि
।।
अर्थ-
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन
से कहते हैं
कि हे अर्जुन। कर्म
करने में तेरा
अधिकार है। उसके
फलों के विषय
में मत सोच।
इसलिए तू कर्मों
के फल का
हेतु मत हो
और कर्म न
करने के विषय
में भी तू
आग्रह न कर।
सूत्र-
भगवान श्रीकृष्ण इस
श्लोक के माध्यम
से अर्जुन से
कहना चाहते हैं
कि मनुष्य को
बिना फल की
इच्छा से अपने
कर्तव्यों का पालन पूरी
निष्ठा व ईमानदारी से
करना चाहिए। यदि
कर्म करते समय
फल की इच्छा
मन में होगी
तो आप पूर्ण
निष्ठा से साथ
वह कर्म नहीं
कर पाओगे। निष्काम कर्म
ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम
देता है। इसलिए
बिना किसी फल
की इच्छा से
मन लगाकर अपना
काम करते रहो।
फल देना, न
देना व कितना
देना ये सभी
बातें परमात्मा पर
छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही
सभी का पालनकर्ता है।
2
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग
त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं
योग उच्यते।।
अर्थ-
हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न
करने का आग्रह
त्यागकर, यश-अपयश के
विषय में समबुद्धि होकर
योग युक्त होकर,
कर्म कर, (क्योंकि) समत्व
को ही योग
कहते हैं।
सूत्र-
धर्म का अर्थ
होता है कर्तव्य। धर्म
के नाम पर
हम अक्सर सिर्फ
कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह
जाते हैं। हमारे
ग्रंथों ने कर्तव्य को
ही धर्म कहा
है। भगवान कहते
हैं कि अपने
कर्तव्य को पूरा करने
में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार
नहीं करना चाहिए।
बुद्धि को सिर्फ
अपने कर्तव्य यानी
धर्म पर टिकाकर
काम करना चाहिए।
इससे परिणाम बेहतर
मिलेंगे और मन में
शांति का वास
होगा। मन में
शांति होगी तो
परमात्मा से आपका योग
आसानी से होगा।
आज का युवा
अपने कर्तव्यों में
फायदे और नुकसान
का नापतौल पहले
करता है, फिर
उस कर्तव्य को
पूरा करने के
बारे में सोचता
है। उस काम
से तात्कालिक नुकसान
देखने पर कई
बार उसे टाल
देते हैं और
बाद में उससे
ज्यादा हानि उठाते
हैं।
3
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न
चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत:
सुखम्।
अर्थ-
योग रहित पुरुष
में निश्चय करने
की बुद्धि नहीं
होती और उसके
मन में भावना
भी नहीं होती।
ऐसे भावना रहित
पुरुष को शांति
नहीं मिलती और
जिसे शांति नहीं,
उसे सुख कहां
से मिलेगा।
सूत्र
– हर मनुष्य की
इच्छा होती है
कि उसे सुख
प्राप्त हो, इसके लिए
वह भटकता रहता
है, लेकिन सुख
का मूल तो
उसके अपने मन
में स्थित होता
है। जिस मनुष्य
का मन इंद्रियों यानी
धन, वासना, आलस्य
आदि में लिप्त
है, उसके मन
में भावना (आत्मज्ञान) नहीं
होती। और जिस
मनुष्य के मन
में भावना नहीं
होती, उसे किसी
भी प्रकार से
शांति नहीं मिलती
और जिसके मन
में शांति न
हो, उसे सुख
कहां से प्राप्त होगा।
अत: सुख प्राप्त करने
के लिए मन
पर नियंत्रण होना
बहुत आवश्यक है।
4
विहाय कामान् य:
कर्वान्पुमांश्चरति
निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
अर्थ-
जो मनुष्य सभी
इच्छाओं व कामनाओं को
त्याग कर ममता
रहित और अहंकार
रहित होकर अपने
कर्तव्यों का पालन करता
है, उसे ही
शांति प्राप्त होती
है।
सूत्र – यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।
सूत्र – यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।
5
न हि
कश्चित्क्षणमपि
जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व
प्रकृतिजैर्गुणै:।।
अर्थ-
कोई भी मनुष्य
क्षण भर भी
कर्म किए बिना
नहीं रह सकता।
सभी प्राणी प्रकृति के
अधीन हैं और
प्रकृति अपने अनुसार हर
प्राणी से कर्म
करवाती है और
उसके परिणाम भी
देती है।
सूत्र- बुरे परिणामों
के डर से
अगर ये सोच
लें कि हम
कुछ नहीं करेंगे
तो ये हमारी
मूर्खता है। खाली
बैठे रहना भी
एक तरह का
कर्म ही है,
जिसका परिणाम हमारी
आर्थिक हानि, अपयश और
समय की हानि
के रूप में
मिलता है। सारे
जीव प्रकृति यानी
परमात्मा के अधीन
हैं, वो हमसे
अपने अनुसार कर्म
करवा ही लेगी।
और उसका परिणाम
भी मिलेगा ही।
इसलिए कभी भी
कर्म के प्रति
उदासीन नहीं होना
चाहिए, अपनी क्षमता
और विवेक के
आधार पर हमें
निरंतर कर्म करते
रहना चाहिए!6
नियतं कुरु कर्म
त्वं कर्म ज्यायो
ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च
ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।
अर्थ- तू
शास्त्रों में बताए गए
अपने धर्म के
अनुसार कर्म कर,
क्योंकि कर्म न करने
की अपेक्षा कर्म
करना श्रेष्ठ है
तथा कर्म न
करने से तेरा
शरीर निर्वाह भी
नहीं सिद्ध होगा।
सूत्र-
श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम
से मनुष्यों को
समझाते हैं कि
हर मनुष्य को
अपने-अपने धर्म
के अनुसार कर्म
करना चाहिए जैसे-
विद्यार्थी का धर्म है
विद्या प्राप्त करना,
सैनिक का कर्म
है देश की
रक्षा करना। जो
लोग कर्म नहीं
करते, उनसे श्रेष्ठ वे
लोग होते हैं
जो अपने धर्म
के अनुसार कर्म
करते हैं, क्योंकि बिना
कर्म किए तो
शरीर का पालन-पोषण करना भी
संभव नहीं है।
जिस व्यक्ति का
जो कर्तव्य तय
है, उसे वो
पूरा करना ही
चाहिए।
7
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते
लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थ-
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण
करते हैं, सामान्य पुरुष
भी वैसा ही
आचरण करने लगते
हैं। श्रेष्ठ पुरुष
जिस कर्म को
करता है, उसी
को आदर्श मानकर
लोग उसका अनुसरण
करते हैं।
सूत्र- यहां भगवान
श्रीकृष्ण ने बताया
है कि श्रेष्ठ
पुरुष को सदैव
अपने पद व
गरिमा के अनुसार
ही व्यवहार करना
चाहिए, क्योंकि वह जिस
प्रकार का व्यवहार
करेगा, सामान्य मनुष्य भी
उसी की नकल
करेंगे। जो कार्य
श्रेष्ठ पुरुष करेगा, सामान्यजन
उसी को अपना
आदर्श मानेंगे। उदाहरण
के तौर पर
अगर किसी संस्थान
में उच्च अधिकार
पूरी मेहनत और
निष्ठा से काम
करते हैं तो
वहां के दूसरे
कर्मचारी भी वैसे
ही काम करेंगे,
लेकिन अगर उच्च
अधिकारी काम को
टालने लगेंगे तो
कर्मचारी उनसे भी
ज्यादा आलसी हो
जाएंगे।8
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म
संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि
विद्वान्युक्त:
समाचरन्।।
अर्थ-
ज्ञानी पुरुष को
चाहिए कि कर्मों
में आसक्ति वाले
अज्ञानियों की बुद्धि में
भ्रम अर्थात कर्मों
में अश्रद्धा उत्पन्न न
करे किंतु स्वयं
परमात्मा के स्वरूप में
स्थित हुआ और
सब कर्मों को
अच्छी प्रकार करता
हुआ उनसे भी
वैसे ही कराए।
सूत्र-
ये प्रतिस्पर्धा का
दौर है, यहां
हर कोई आगे
निकलना चाहता है।
ऐसे में अक्सर
संस्थानों में ये होता
है कि कुछ
चतुर लोग अपना
काम तो पूरा
कर लेते हैं,
लेकिन अपने साथी
को उसी काम
को टालने के
लिए प्रोत्साहित करते
हैं या काम
के प्रति उसके
मन में लापरवाही का
भाव भर देते
हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति वही
होता है जो
अपने काम से
दूसरों के लिए
प्रेरणा का स्रोत बनता
है। संस्थान में
उसी का भविष्य
सबसे ज्यादा उज्जवल
भी होता है।
9
म वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ
सर्वश:।।
अर्थ-
हे अर्जुन। जो
मनुष्य मुझे जिस
प्रकार भजता है
यानी जिस इच्छा
से मेरा स्मरण
करता है, उसी
के अनुरूप मैं
उसे फल प्रदान
करता हूं। सभी
लोग सब प्रकार
से मेरे ही
मार्ग का अनुसरण
करते हैं।
सूत्र-
इस श्लोक के
माध्यम से भगवान
श्रीकृष्ण बता रहे हैं
कि संसार में
जो मनुष्य जैसा
व्यवहार दूसरों के प्रति
करता है, दूसरे
भी उसी प्रकार
का व्यवहार उसके
साथ करते हैं।
उदाहरण के तौर
पर जो लोग
भगवान का स्मरण
मोक्ष प्राप्ति के
लिए करते हैं,
उन्हें मोक्ष की
प्राप्ति होती है। जो
किसी अन्य इच्छा
से प्रभु का
स्मरण करते हैं,
उनकी वह इच्छाएं भी
प्रभु कृपा से
पूर्ण हो जाती
है। कंस ने
सदैव भगवान को
मृत्यु के रूप
में स्मरण किया।
इसलिए भगवान ने
उसे मृत्यु प्रदान
की। हमें परमात्मा को
वैसे ही याद
करना चाहिए, जिस
रुप में हम
उसे पाना चाहते
हैं।
From: http://hindi.insistpost.com
Nice post, things explained in details. Thank You.
ReplyDeleteNice though
ReplyDeleteI am extremely impressed along with your writing abilities, Thanks for this great share.
ReplyDeleteNice post...
ReplyDeleteLife me sachi bahut hi kam aati he...
Thankx....
बहुत ही अच्छा लगा आपको बहुत ही धन्यवाद. राधेराधेजी राधेराधेजीराधेराधेजी
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